कृष्ण प्रताप सिंह
एक मजेदार प्रसंग से बात शुरू करते हैं। उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के नेता केशवप्रसाद मौर्य ने अति उत्साह में गुरुवार को मतगणना का पहला रुझान आने से पहले ही ट्वीट कर दिया, ‘आज यूपी के उपचुनाव परिणाम भविष्य के लिए निर्णायक संदेश देने वाले होंगे’ तो आम तौर पर उसे आजमगढ़ और रामपुर लोक सभा सीटों के गत उपचुनाव में उनकी पार्टी को हासिल हुई जीत की खुमारी में प्रदर्शित अति आत्मविश्वास बताया गया।
अलबत्ता, कुछ लोगों ने यह कहकर उनके अधैर्य की चुटकी भी ली कि इस ट्वीट से पहले उन्हें कम-से-कम इतना तो सोच लेना चाहिए था कि कभी-कभी ईवीएम से जिन्न भी निकलने लग जाते हैं, लेकिन नतीजे आने के बाद लखनऊ में भाजपा के प्रदेश मुख्यालय पर सन्नाटा पसर गया और बकौल समाजवादी पार्टी, मौर्य अपना ट्वीट डिलीट कर भाग खड़े हुए। हालांकि मौर्य चाहें तो यह सोचकर खुश भी हो सकते हैं कि मतदाताओं ने उन्हें गलत सिद्ध होने से बचा लिया है-न सिर्फ प्रदेश के उपचुनावों के, बल्कि गुजरात और हिमाचल विधानसभा चुनावों के मतदाताओं ने भी। क्योंकि भविष्य के लिए निर्णायक संदेश देने में उन्होंने भी कोई कोताही नहीं ही की है। अब प्रेक्षक और विश्लेषक उनके संदेश की व्याख्या में मुब्तिला हैं, और देख कर हैरत होती है कि उनमें कई यह जताने में ढेर सारा पसीना बहा रहे हैं कि ये संदेश जितने निर्णायक दिख रहे हैं, वास्तव में उतने हैं नहीं। लेकिन इन प्रेक्षकों से भी मतदाताओं के इस संदेश की अनसुनी संभव नहीं हो पा रही कि देश भर में लोकतंत्र के सम्मुख उपस्थित गलाघोंटू अंदेशों के बावजूद वे बदलाव की अपनी शक्ति को लेकर निराश होने को तैयार नहीं हैं।
मतदाताओं ने जता दिया है कि वे अपनी पर आ जाएं तो हर तरह का गठजोड़ या समीकरण भी सत्ताधीशों के किसी काम का नहीं। उन पार्टयिों के भी काम का नहीं, जो दावा करती हैं कि उनकी सरकारों के खिलाफ तो एंटी इनकम्बैंसी होती ही नहीं है। इस एंटी इन्कम्बैंसी ने एमसीडी के चुनाव में तो अपना रंग दिखाया ही, जिस पर पंद्रह साल से भाजपा का कब्जा था, उस हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी दिखाया है, जहां कांग्रेस ने अरसे बाद, हर पांच साल में सरकार बदलने के रिवाज के तहत ही सही, भाजपा को सीधे मुकाबले में करारी शिकस्त दी है। इस तरह कि बड़बोले केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के संसदीय क्षेत्र हमीरपुर में भाजपा का खाता तक नहीं खुल पाया है। गौरतलब है कि हिमाचल प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा का गृह प्रदेश है। इस रूप में उसे गंवाने का उसका दुख उतना ही बड़ा होना चाहिए जितना प्रधानमंत्री का गृह राज्य जीत लेने का हषर्। अगर वह कहें कि हिमाचल तो वह हर चुनाव में सत्तापलट के रिवाज के कारण हारी तो गुजरात में भी उसने सरकारें दोहराने के रिवाज के कारण ही इतिहास बनाया है।
जहां तक गुजरात में भाजपा की अभूतपूर्व जीत की बात है, किसे नहीं मालूम कि वह जानें किस रणनीति के तहत कांग्रेस द्वारा उसे दिए गए अनौपचारिक वॉकओवर और आम आदमी पार्टी द्वारा राष्ट्रीय पार्टी बनने के लिए भाजपा विरोधी मतों में अविवेकपूर्ण विभाजन कराने का फल है। एमसीडी में भाजपा को हराकर खुश हो रही आम आदमी पार्टी जब भी सच्चा आत्मावलोकन करेगी, बहुत ग्लानिग्रस्त होगी कि उसने गुजरात के लोगों की रात पांच साल और लंबी करने में ‘महत्त्वपूर्ण’ भूमिका निभाई। भला हो हिमाचल के मतदाताओं का जिन्होंने उसे महज एक प्रतिशत वोट दिया और सारी सीटों पर उसकी जमानत जब्त करा दी वरना उनकी रात भी और लंबी होनी तय थीं। एमसीडी में मतदाताओं ने भी विधानसभा चुनाव के मुकाबले उसके वोट बारह प्रतिशत घटाए ही हैं। हां, जैसे भी बने, लोकतांत्रिक मूल्यों को हराने की कवायदों के कीचड़ में प्रधानमंत्री तक को लथपथ कर चुनाव जीत लेना ही गर्व की कसौटी हो और इसके लिए गैंगरेप करने वालों को संस्कारी बताने तक की मान्यता हो तो ‘गुजरातवासियों के दिलों पर अपने राज’ के लिए भाजपा न सिर्फ अपनी पीठ भरपूर ठोंक सकती है, बल्कि जश्न भी मना सकती है, लेकिन क्या वह याद करना चाहेगी कि जब इसी तरह वामपंथी दल प. बंगाल में अजेय हुआ करते थे, वह उनकी जीत को किस रूप में देखती थी?
फिर भी भाजपा नेताओं के इस कथन में कोई मीन-मेख नहीं निकाला जा सकता कि गुजरात में भाजपा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करिश्मे से ही जीती है, लेकिन यह साफ होना अभी बाकी है कि भाजपा नेता एमसीडी और हिमाचल प्रदेश में भाजपा की हार के पीछे भी उनके करिश्मे की भूमिका मानते हैं, या नहीं? इस प्रदेश के मतदाताओं से तो प्रधानमंत्री यह तक कह आए थे कि वे उनके नाम पर केवल भाजपा का चुनाव चिह्न देखकर वोट दें, इस पर कतई ध्यान न दें कि प्रत्याशी कौन है। फिर?
विडम्बना यह कि उत्तर प्रदेश के उपचुनाव नतीजों ने इस बाबत मुंह खोलने के भाजपा नेताओं के संकट को और गहरा कर दिया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रचार करने गुजरात गए थे तो उन्हें ‘शो स्टापर’ कहा जा रहा था। उनकी रैलियों में भाजपा के झंडे लगे बुलडोजर प्रदर्शित किए जा रहे थे। भाजपाई वहां भाजपा की जीत में इन बुलडोजरों का तनिक भी योगदान मानेंगे तो उन्हें इस सवाल से गुजरना होगा कि ये बुलडोजर उप्र में रामपुर में आजम खां के अरमानों को रौंदने के अलावा कुछ क्यों नहीं कर पाए? मैनपुरी में तो मान लेते हैं कि मुलायम सिंह यादव के निधन के कारण सपा के प्रति सहानुभति की लहर उमड़ी हुई थी, लेकिन भाजपा ने जिन रघुराज सिंह शाक्य को प्रत्याशी बनाकर इमोशनल अत्याचार के रास्ते वहां उन पर सपा से न सिर्फ मुलायम की विरासत, बल्कि मायावती के दलित वोटबैंक की तर्ज पर पिछड़ों का वोटबैंक छीन लेने का तकिया रखा, वे खुद अपने बूथ पर 187 वोटों से क्यों हार गए?
क्यों भाजपा के राज्य सभा सदस्य हरनाथ सिंह यादव के गांव में भाजपा को तीन ही वोट मिले? योगी के बुलडोजर टिकट को लेकर प्रतिद्वंद्वी रालोद में ‘बगावत’ के बावजूद भाजपा की खतौली विधानसभा सीट भी क्यों नहीं बचा सके? गौरतलब है कि बिहार में इसी तर्ज पर एक विधानसभा सीट गंवाने के ‘अपराध’ में भाजपा वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का इस्तीफा मांग रही है। हां, इन सबसे बड़ा सवाल यह है कि ऐसे में कौन विश्वास करेगा कि यह वही भाजपा है, जो कभी मूल्याधारित राजनीति की बात किया करती थी?